Saturday 5 March 2016

उलझन


ये राह-ए-ज़िंदगी इतनी उलझी सी क्यों है , मैं हर बार   शूरू करता  हूँ चलना और हर बार खो जाता  हूँ ।

क्या पूँछू मैं ज़िन्दगी पता तेरा, ना जाने क्यों मैं पा कर भी तुमको, खोजने हर बार निकल जाता हूँ ।

ऐ ज़िन्दगी कभी पाया था मैंने भी खुदा को तेरी राहों में, मगर संभाल लेता मैं अपने खुदा को ,इतना हुनर कहाँ जानता हूँ।

क्या विडंबना है  ऐ मेरी किस्मत ,थी उम्मीद जिनसे वफ़ा की ,बेवफ़ाई वो और वफ़ा करना सिर्फ मैं जानता  हूँ।

कभी  ज़िन्दगी के  लिये मैं पूरे जहान  से लड़ गया था ,
आज हर बार दुआ में ,लिए हाथ मे कफन , मौत मैं माँगता हूँ ।

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वक़्त का खेल

तुम बिछड़ जाओगे मिलकर,  इस बात में कोई शक़ ना  था ! मगर भुलाने में उम्र गुजर जाएग, ये मालूम ना  था !!