भूल कैसे जाऊँ जिसे दिल में सींचा था ,
जो आँखो से होकर अश्क़ो में बह गया,
किसी मोड़ पर जिंदगी के ।
कुछ यूँ उलक्षा मै वक़्त के भँवर में ,
चाहकर भी रुक नहीं पाया तेरे साथ,
उस मोड़ पर जिंदगी के।
तेरी आँखों से सिर्फ अश्क़ नहीं ,
मोहब्बत का पूरा कारवां बहा था ,
उस मोड़ पर जिंदगी के ।
अगर एहसास था मेरे दर्द का तुझको ,
फिर गले क्यों नहीं लगा लिया आकर ?
खड़ी रही मैं आज तक उस मोड़ पर जिंदगी के ।
होकर अलग तुमसे मैं इंसान कहाँ रहा ?
ज़िंदा रहकर मैं फिर ज़िंदा कहाँ रहा ?
आकर इस मोड़ पर जिंदगी के ।
कह तो दिया होता इंतजार ना करना ,
मै जिन्दा ना रहती साँसों के रहमो करम पर ,
आकर इस मोड़ पर जिंदगी के।
तुम्हें पाने की आस मै कैसे छोर देता ,
लड़ता रहा मै हथेली की लकीरों से ,
आज तक उस मोड़ से जिंदिगी के ।
मोहब्बत करना मेरा गुनाह हो गया था,
जो आज तक चलती रही तन्हा ही काटों पर,
बाद उस मोड़ से जिंदगी के ।
काश ना हारा होता हालातों से मै,
सिर्फ देखता रह गया तुम्हें तड़पते हुए ,
आकर इस मोड़ पर जिंदगी के ।
बेरंग मेरे जिंदगी हो गयी हार कर तुम्हें हालातों से ,
सोचता हूँ आज फिर चल दूँ ,
उसी मोड़ पर जिंदगी के ।
ना कब्र बंधन होगा ना आसमान बंधन होगा ,
तुम आवाज तो एक बार देना ,
आकर फिर से उसी मोड़ पर जिंदगी के ।