हर दर पर सर मैने झुकाया ,
फिर बाद इतनी मोहब्बत के भी,
तुम्हें पा क्यों नहीं पाता।
तेरी यादों से लिपटे ख़त है मेरे पास ,
बेबस मैं भी कितना ,
उन्हें अब पढ़ नहीं पाता।
गुजर जाती है राते मेरी ,
हर रोज़ इसी कश्मकश में ,
और सपनों में भी क्यों तुमको झुठला नहीं पाता।
हर बार तेरे नाम लिखता,
फिर यूँ लिखकर मिटा देता हूँ,
फिर क्यों खुद से तुम्हें मैं मिटा नहीं पाता।
क्या रह गया जिससे हो कर न गुजरा हूँ मैं,
इतनी कोशिशो के बाद भी ,
तुम्हें भुला क्यों नहीं पाता ।
हर वो पल याद है आज भी ,
अपनी खुशियों का मुझको ,
ना जाने क्यों धागों में बस पिरो मैं नहीं पाता ।
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